सिनेमा और रेडियो: अंतर्माध्यम जुगलबंदी - II
फ़िल्मी गीतों के प्रति आकाशवाणी के सख़्त ऐतिहासिक रवैये के उलट व्यावसायिक सिनेमा में आम तौर पर रेडियो को बेपनाह मोहब्बत के साथ पेश किया गया है, जो सिनेमा के लिए रेडियो की अहमियत का सुबूत है. न्यू थिएटर्स की फ़िल्म दुश्मन (1939) से लेकर हाल की रंग दे बसंती और बर्फ़ी !(2012) तक हम नज़र फेरें - जिनमें रेडियो एक किरदार की हैसियत से आता है - तो पाएँगे कि सिनेमा ख़ुद रेडियो का एक विशाल अभिलेखागार है, जिसके आधार पर हम इस जुगलबंदी का दिलचस्प इतिहास लिख सकते हैं. कोरोना-काल में हम सहज समझ सकते हैं कि दुश्मन में रेडियो लोकप्रिय गायक सहगल के टीबी हो जाने के बाद अपने प्रशंसकों और प्रेमिका से जुड़े रहने का अकेला साधन बच जाता है. दिलचस्प है कि इस फ़िल्म को वायसराय लिनलिथगो के आर्थिक अनुदान से बनाया गया था, ताकि जनता को पता चले कि टीबी संक्रामक तो है लेकिन लाइलाज नहीं. यानि फ़िल्म में रेडियो अंग्रेज़ी सरकार के कल्याणकारी कार्यक्रमों के जनप्रचार का माध्यम बनता है. इस फ़िल्म ने प्रसारण की दुनिया को ‘आवाज़ की दुनिया के दोस्तो’ जैसा लोकप्रिय संबोधन भी दिया, जिसका इस्तेमाल रेडियो सिलोन के मशहूर उद्घोषक गोपाल शर्मा ने अपनी आत्मकथा के शीर्षक के रूप में भी किया.
कई जगहों पर रेडियो एक ऐसे बड़े फ़र्नीचर के रूप में पेश होता है, जिसके पीछे छुपकर जासूसी की जा सकती है (बेवक़ूफ़), या ऐसी पवित्र मेज़ के रूप में जिसके ऊपर रक्षाबंधन या पूजा की थाल रखी जाती है (अपराधी) सिनेमा द्वारा रेडियो को आदर दिलाने की यह कोशिश मायने रखती है चूँकि उस ज़माने में सिनेमा की ही तरह रेडियो में काम करना भले घर के लोगों के लिए अच्छा नहीं माना जाता था, तवायफ़ों का बदनाम अड्डा जो माना जाता था. दिलचस्प है कि नायक अपनी माशूक़ा की आवाज़ के स्रोत के रूप में अगर रेडियो को चूमता है, तो खलनायक-अवतार में उसे बेरहमी से तोड़ डालता है (अपराधी, 1948, अमरदीप, 1958). पुरानी फ़िल्मों में नायक अक्सर शायर भी होते थे, और गायक भी, नायिकाएँ अक्सर उनकी फ़ैन होती थीं (दिल की रानी, शायर, बरसात की रात, तीन देवियाँ) और दोनों में अक्सर प्यार हो जाता था. गायक या गायिका की लोकप्रियता को सुनने वालों की भाव-भंगिमा से बताया जाता था, जिनमें असर दिखता था. आवाज़ के सफ़र को सिनेमा में कैमरे के सफ़र के माध्यम से दिखाया जाता था, जैसे हम आज गूगल मैप्स पर देखते हैं. दिल की रानी और अपराधी दोनों में आवाज़ आकाशवाणी के स्टूडियो से ट्रांस्मिशन मीनारों के ज़रिये निकलकर सड़कों, गलियों और घरों के ड्राइंग या बेड-रूम तक में दाख़िल होती है. लोग गीत के साथ गाते-गुनगुनाते या झूमते देखे जा सकते हैं. लेकिन नायिका तो ख़ासमख़ास फ़ैन हुई न? दिल की रानी और बरसात की रात दोनों में मधुबाला नायक को देखे बग़ैर उसकी कविता और गायकी पर मुग्ध है, और पहली फ़िल्म दूसरी सफल फ़िल्म की नामुकम्मल रिहर्सल लगती है. दूसरी फ़िल्म की प्रेरणा दरअसल मुंबई में हुए पाकिस्तानी क़व्वालों के एक शो से मिली थी. ‘ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात…’ सुनने और देखने के कई स्तरों पर चलने वाला पहचान गीत है - आवाज़ को शरीर से पहचान कराने का बहाना है तो शरीर को शब्द से मिलवाने का भी, और लफ़्ज़ मधुबाला को ऐसी गीली शाम की याद दिलाते हैं कि वह शर्मा जाती है. लेकिन उस आवाज़ से एकमेक होने के चक्कर में रेडियो में ही घुसी चली जाती है गोया उस आदमी से एकाकार होने का ज़रिया यह यंत्र ही हो! फ़िल्म शायरी की मौखिक संस्कृति, मंचीय गायन और उनके छपाई या रेडियो-जैसे माध्यम से उनके प्रसारण, उसके स्वामित्व और श्रोतावर्ग को लेकर भी कई सूक्ष्म सांस्कृतिक टिप्पणियाँ करती है.